"डिबेर का युद्ध: जब प्रताप ने फिर से मेवाड़ की धरती जीती"।"महाराणा प्रताप बनाम अकबर :डिबेर युद्ध की वीरता की कहानी"
दिवेर का युद्ध महाराणा प्रताप और अकबर के बीच हुआ था। भारतीय इतिहास में महाराणा प्रताप और अकबर के बीच एक संघर्ष भरा इतिहास रहा है। हम सबको हल्दीघाटी का युद्ध याद है । हल्दीघाटी का युद्ध को पूरा विश्व जनता है और हम सबने महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी में ही समेट कर रख देते हैं उसे भी कम चर्चित परंतु अत्यंत महत्वपूर्ण युद्ध दिवेर का युद्ध है। दिवेर के युद्ध में हमें महाराणा प्रताप का साहस स्वाभिमान और स्वतंत्रता की निष्ठा का अटूट प्रतीक है । दिवेर का युद्ध तब होता है जब महाराणा प्रताप ने सोचा कि मेवाड़ पर मुगलों का कब्जा खतम किया जाए और मेवाड़ को फिर से जीता जाए।
इतिहासिक पृष्ठभूमि:
16 वीं शताब्दी में मुगल अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। उसी समय मेवाड़ राज्य ने कभी मुगलों के सामने अपन सिर नहीं झुकाया। अकबर ने कही राजपूत रियासतों को अपने अधीन कर लिया था।मगर मेवाड़ ही एक ऐसा राज्य था जिसने कभी अकबर की अधीनता नहीं स्वीकारी थी।
महाराणा प्रताप और अकबर के बीच हल्दीघाटी में 1576 में युद्ध लड़ा जाता है इस युद्ध का परिणाम अब तक कौन जीता वो रहस्य है। उसके बाद कही सालों तक महाराणा जंगलों में चले गए और उन्होंने छापामार युद्ध पद्धति से मेवाड़ का संघर्ष जारी रखा उन्होंने कही साल जंगलों में गुजरे लेकिन उन्होंने कभी अकबर की आधीन ता मेवाड़ ने नहीं स्वीकारी वे हमेशा स्वतंत्र रहे हैं।
डिबेर की स्थिति और सामरिक महत्व:
डिबेर , मेवाड़ का एक महत्वपूर्ण स्थान था जो रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। यह अरावली पर्वतमाला के पास स्थित था और वहां से उदयपुर, कुंभलगढ़, और अन्य प्रमुख किलों पर निगरानी रखना आसान था। अकबर की सेना ने डिबेर समेत कई स्थानों पर नियंत्रण स्थापित कर रखा था।
महाराणा प्रताप ने यह ठान लिया था कि वे एक-एक कर अपनी भूमि को मुक्त करवाएंगे। डिबेर पहला ऐसा स्थान बना जहां से उन्होंने वापसी की शुरुआत की।
डिबेर युद्ध डिबेर के युद्ध की तैयारी महाराणा प्रताप ने बहुत समय से कर रहे थे। महाराणा प्रताप को अब विश्वास हो गया था कि उनकी सेना अब लड़ने के लिए तैयार है। और वह मेवाड़ के जो किले मुगलों के पास है उसे फिर से जीत लेगे उन्हें उनके पुत्र अमर सिंह और उनके सेनापति हाकिम खा सूर, भामा शाह, जीवनदास चौहान, और रामदास राठौड़ का साथ मिला।
भामाशाह ने महाराणा को भारी आर्थिक सहायता दी, जिससे एक मजबूत सेना खड़ी की जा सकी। प्रताप ने नई रणनीति के तहत अब आक्रमणकारी रुख अपनाया।
डिबेर का युद्ध (1582):
महाराणा प्रताप और राजपूत योद्धा सारे दशेरा पर शस्त्र पूजन करते हैं और हमारे यहां रिवाज है कि तलवार को बिना खून लगाए हुए मियांन में नहीं डालते शस्त्र पूजन के बाद महाराणा प्रताप और उनके सेनापतियों के बीच एक साथ बैठ कर मुगलों पर आक्रमण करने की योजना बनाई।
सन 1582 में, प्रताप की सेना ने डिबेर पर धावा बोला। यह युद्ध मेवाड़ी सेना और मुगलों के बीच हुआ इस युद्ध में अमरसिंह ने खूब अपना जौहर दिखाया । यह युद्ध में महाराणा प्रताप और अमरसिंह दोनों की वीरता को दिखाता है। डिबेर में अकबर ने अपनी सबसे शक्तिशाली टुकड़ी तैनात की थी उसे मेवाड़ की सेना ने डिबेर में आसानी से परास्त कर दिया।
युद्ध का दृश्य:
डिबेर का युद्ध बहुत ही घमासन और रक्तरंजीत था। महाराणा प्रताप इस युद्ध में तलवार लेके उतर पड़ते महाराणा प्रताप इस युद्ध में स्वयं यमराज का रूप धर लेते हैं। महाराणा प्रताप का यह रूप देखकर मुगल भागने लगते हैं। उनका यह आक्रामक रूप देख कर मेवाड़ी सेना का उत्साह बढ़ जाता है। महाराणा प्रताप का यह प्रचंड रूप उनके मरे हुए घोड़े के प्रत्ये प्रेम दिखाता है जो हल्दीघाटी में मुगलों के सामने लड़ते हुए मारा जाता है। मुगलों ने कभी सोचा भी नहीं था कि मेवाड़ की सेना इतना आक्रामक हमला करेगी। कही मुगल सैनिक मारे गए और कुछ भागने में सफल हो गए। महाराणा प्रताप ने 30000 मुगल सैनिक को बंदी बनाया।
युद्ध के परिणाम:
डिबेर की विजय महाराणा प्रताप के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। यह युद्ध एक निर्णायक मोड़ लेकर आया, क्योंकि इसके बाद प्रताप ने धीरे-धीरे चावड़, उदयपुर, कुंभलगढ़, गोगुंदा, रनकपुर आदि स्थानों को भी पुनः अपने अधीन कर लिया।।।
डिबेर की जीत ने न केवल मेवाड़ में उत्साह की लहर ला दी, बल्कि राजस्थान के अन्य राजपूतों में भी स्वतंत्रता की भावना को फिर से जागृत किया। इससे अकबर को बड़ा धक्का लगा, और वह व्यक्तिगत रूप से कभी महाराणा प्रताप के विरुद्ध युद्ध में नहीं गया।
डिबेर युद्ध के नायक:
इस युद्ध में कई वीर योद्धाओं ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिनमें प्रमुख नाम हैं:
अमर सिंह – महाराणा प्रताप के पुत्र, जिन्होंने अपने पिता के साथ युद्धभूमि में साहस दिखाया।
भामाशाह – जिन्होंने आर्थिक सहायता देकर प्रताप को नई सेना खड़ी करने में मदद की।
हाकिम खां सूर – मुस्लिम सेनापति जो प्रताप के प्रति निष्ठावान रहे और मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए लड़े।
झाला मान – जिन्होंने हल्दीघाटी के बाद भी डिबेर में प्रताप का साथ दिया।
रामदास राठौड़ – जिन्होंने रणभूमि में वीरता दिखाई।
डिबेर युद्ध का ऐतिहासिक महत्व:
डिबेर का युद्ध इतिहास में इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दर्शाता है कि प्रताप ने हार नहीं मानी और धैर्यपूर्वक समय आने की प्रतीक्षा की। जब अवसर मिला, तो उन्होंने विजय प्राप्त कर स्वतंत्रता की लौ फिर से जला दी। यह युद्ध दर्शाता है कि मुगलों की शक्ति अजेय नहीं थी और एक संगठित, प्रेरित और साहसी नेतृत्व के अंतर्गत स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है।
महाराणा प्रताप की दूरदर्शिता:
डिबेर युद्ध के बाद प्रताप ने चावड़ को अपनी नई राजधानी बनाया और वहीं से उन्होंने शेष जीवन तक प्रशासन चलाया। उन्होंने खेती, कारीगरी और पुनर्वास कार्यों में विशेष ध्यान दिया। युद्ध के साथ-साथ उन्होंने मेवाड़ के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण में भी विशेष योगदान दिया।
निष्कर्ष:
डिबेर का युद्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक प्रेरक अध्याय है। यह युद्ध केवल दो शासकों के बीच की लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह आत्मसम्मान और पराधीनता के विरुद्ध स्वतंत्रता की चिंगारी थी। महाराणा प्रताप का साहस, उनका नेतृत्व और उनका संघर्ष हर भारतीय को यह सिखाता है कि परिस्थितियां कैसी भी हों, यदि संकल्प अडिग हो तो विजय निश्चित है।
डिबेर युद्ध महाराणा प्रताप की विजई यात्रा की शुरुआत थी। यह युद्ध बताता है कि असफलता के बाद भी यदि मन में ज्वाला हो, तो कोई भी शक्ति आपकी स्वतंत्रता को रोक नही
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