"राणा कुम्भा: मेवाड़ के स्थापत्य और शौर्य का प्रतीक"।"कुम्भगढ़ के निर्माता: राणा कुम्भा का जीवन और योगदान"।


 

प्रस्तावना

राजस्थान एक वीरों की भूमि है राजस्थान की भूमि पर कही महान योद्धा ओ ने जन्म लिया। यहां पर असंख्या राजा, महाराजा और कही योद्धा हुवे जिन्होंने अपने पराक्रम और शौर्य से अपना नाम का इतिहास रचा। यही महान योद्धाओ में एक महाराजा राणा कुम्भा भी थे, जिन्होंने मेवाड़ के शासक और सिसोदिया वंश के गौरवशाली राजा थे।राणा कुम्भा केवल एक योद्धा ही नहीं, बल्कि एक विद्वान, स्थापत्यकला के प्रेमी, और संगीतज्ञ भी थे। उनके शासनकाल में मेवाड़ ने सांस्कृतिक, धार्मिक और सैन्य रूप से अपूर्व उन्नति की।

राणा कुम्भा का प्रारंभिक जीवन

राणा कुम्भा का जन्म 1417 में हुआ था।

राणा कुम्भा के पीता का नाम मोकल था जो मेवाड़ के राजा थे।

राणा कुम्भा की माता का नाम सौभाग्यदेवी था।

राणा कुम्भा का मूल नाम कुंभकर्ण सिंह था।

राणा कुम्भा बाल्यकाल से ही वे बुद्धिमान, और पराक्रमी थे।

राणा कुम्भा की सात पत्नियां थी। और 14 बच्चे थे।

राजगद्दी की प्राप्ति

1433 में राणा मोकल हिंदू बादशाही स्थापित करने के लिए निकले तभी चाचा मेरा, और राणा क्षेत्रासिंह के दासी पुत्रों ने मिलकर राणा मोकल की हत्या कर दी। यह बात जब मेवाड़ में पता चली तभी मेवाड़ के सारे सरदार ने अपनी तलवार निकल दी और तभी राजसभा में एक बच्चा आता है। और अपनी तलवार सिंघासन पर रख देता है और बोलता है। की अब से मेवाड़ के सारे सरकारी आदेश मेरी मोहर के नीचे से जाएगी और किसी को कोई दिक्कत हो तो तलवार सिंघासन से उठा ले मगर किसी भी सरदार की हिम्मत नहीं हुई तलवार उठा ने की क्योंकि यह तलवार किसी और की नहीं मगर राणा मोकल के पुत्र राणा कुम्भा की थी।

  

    पिता की मृत्यु के बाद 1433 में राणा कुम्भा का मेवाड़ की गद्दी पे आए। पुरे राजपुताने में कुम्भा के नाम से जाने जाते हैं।16 साल के बालक अवस्था में राणा कुम्भा मेवाड़ के राजा बने। अपने पिता के कातिलों को सारंगपुर के मैदानों में दौड़ा दौड़ा कर टुकड़े टुकड़े कर दिए मेवाड़ पर अधिकार जमाने की सोच को जानकर रणमल को रस्ते से हटाकर संपूर्ण मालवा पे अपना अधिकार कर लिया। मालवा के सुल्तान को पांच बार हराकर चितौड़ में कैद कर लिया।

राणा कुम्भा का सैन्य पराक्रम।

राणा कुम्भा का शासनकाल युद्धों से भरा हुआ था, वह हर बार विजय होके लौटे, राणा कुम्भा ने अपने जीवन काल में 56 युद्ध लड़े और सारे युद्धों में विजय हुवे हैं। उन्होंने मुस्लिम शासकों साथ संघर्ष किया, जिसमें गुजरात के शासक सुलतान महमूद खिलजी और मालवा के शासक मोहम्मद खिलजी थे। गुजरात के शाहों बार बार हरा के वापस लौट ने पर मजबूर कर दिया। राणा कुम्भा ने अपने काल में नागौर, अजमेर, बूंदी डूंगरपुर, आबू, तथा रणथंभोर पर अपना अस्थित्व स्थापित किया। राणा कुम्भा वेद, पुराण, उपनिषद के बहुत बड़े विद्वान थे। वो संगीत, नाटक और साहित्यों के सभाओं के आयोजन करते थे। उन्होंने कही ग्रंथ लिखे। वह जब राजा थे तब मेवाड़ अपने विस्तार अपने चरम पर था।

  वह परम शिव भक्त थे जिन्होंने कही शिवालयों को स्थापित करवाया। उन्हीं के काल में मेवाड़ में भव्य 32 दुर्गा का निर्माल करवाया। उन्होंने अपने नाम पर से कुंभलगढ़ बनवाया जो एक अभेद्य किला है। 


   राणा कुम्भा ने मालवा और गुजरात पर विजय पाई। मालवा के सुल्तान मोहमद ख़िलजी को कही बार हराय।

  

राणा कुम्भा ने 1448 में महमूद खिलजी को हराकर। राणा कुम्भा ने विजय स्तंभ का निर्माण किया। जे स्तंभ विजय का प्रतीक है। विजय स्तंभ 37.17 मीटर ऊंचाई धरता है।


उन्होंने गुजरात के सुल्तान को भी चित्तौड़ की सीमा में घुसने नहीं दिया और अपनी भूमि की रक्षा की।

कुंभलगढ़ – स्थापत्य का अद्वितीय उदाहरण

राणा कुम्भा को स्थापत्यकला का बड़ा प्रेम था। उन्होंने कई भव्य किलों, मंदिरों और स्मारकों का निर्माण कराया। इनमें सबसे प्रसिद्ध है कुंभलगढ़ का किला, जो अरावली पर्वतों की गोद में स्थित है।

कुंभलगढ़ की विशेषता:

इसकी दीवार को 'भारत की ग्रेट वॉल' भी कहा जाता है, जो करीब 36 किलोमीटर लंबी है।


यह विश्व की दूसरी सबसे लंबी दीवार मानी जाती है।


यह किला सामरिक दृष्टि से इतना सुदृढ़ है कि किसी भी विदेशी आक्रमणकारी को इसे जीतना कठिन पड़ता था।

राणा कुम्भा ने लगभग 32 किलों का निर्माण कराया था, जो उनके स्थापत्य कौशल और दूरदृष्टि को दर्शाता है।


सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान

राणा कुम्भा केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि एक साहित्यकार, संगीतज्ञ और धर्मपरायण राजा भी थे। उन्होंने संस्कृत, धर्मशास्त्र और संगीत में गहन रुचि ली।


उनके प्रमुख योगदान:

वे स्वयं एक लेखक थे और संस्कृत में खूंभलता, 'सुधा प्रवृत्ति' जैसे ग्रंथों की रचना की।


उन्होंने संगीत के क्षेत्र में भी योगदान दिया और कई विद्वानों को अपने दरबार में स्थान दिया।


चित्तौड़ और कुंभलगढ़ अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया।


राणा कुम्भा ने जैन, वैष्णव और शैव धर्म के अनुयायियों को समान रूप से सम्मान दिया।


राणा कुम्भा की हत्या और अंत

इतिहास में सबसे दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में से एक है राणा कुम्भा की मृत्यु। उन्हें उनके ही पुत्र उदय सिंह प्रथम ने धोखे से मार दिया। यह घटना न केवल मेवाड़ के इतिहास पर एक काला धब्बा थी, बल्कि यह दर्शाती है कि सत्ता की लालसा रिश्तों से ऊपर हो गई थी।


राणा कुम्भा की हत्या 1468 ईस्वी में हुई, जब वे रात्रि में शिव मंदिर में पूजा कर लौट रहे थे।


राणा कुम्भा की विरासत

राणा कुम्भा की मृत्यु के बाद भी उनकी बनाई हुई इमारतें, किले और उनकी वीरता की गाथाएं आज भी राजस्थान और भारत के गौरव का प्रतीक हैं।


उनकी विरासत के मुख्य पहलू:

कुमलगढ़ा किला आज यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है।


राजस्थान के लोकगीतों और कहानियों में राणा कुम्भा की वीरता आज भी जीवित है।


उनकी सांस्कृतिक सोच और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण उन्हें अन्य राजाओं से अलग बनाती है।


उनके द्वारा बनाया गया विजय स्तम्भ आज भी खड़ा है।


निष्कर्ष

राणा कुम्भा केवल एक राजा नहीं, बल्कि एक युग निर्माता थे। उन्होंने न केवल अपनी तलवार से दुश्मनों को हराया, बल्कि अपने ज्ञान, संस्कृति और स्थापत्य से भारत की भूमि को समृद्ध बनाया। उनकी पहचान एक वीर योद्धा, प्रजावतस कला प्रेमी और धर्मनिष्ठ राजा के रूप में आज भी अमिट है।


राजस्थान की रेत में आज भी राणा कुम्भा की वीरता की गूंज सुनाई देती है, और उनकी बनाई दीवारें आज भी उनके पराक्रम और बुद्धिमत्ता की साक्षी हैं।



 

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